मिर्ज़ा ग़ालिब Mirza Ghalib
मिर्ज़ा ग़ालिब Mirza Ghalib एक नाम ही नहीं है, ये खुद में एक मुकम्मल शायरी है शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने कभी न कभी मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम न सुना हो या उनका कोई शेर न दोहराया हो वो अपने बारे में ये शेर कहते हैं की-
होगा कोई ऐसा जो ग़ालिब को ना जाने
शायर तो अच्छा है पर बदनाम बहुत !!!
आइये आज बात करें इस अज़ीम शायर की उसकी ज़िन्दगी (Biography) उसकी शायरी (Poetry) के बारे में।
मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़िन्दगी
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
अपने जी में हमने ठानी और है
हम जिस अज़ीम शायर को मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से जानते है उनका असल नाम असद उल्लाह खान था। आज के आगरा, उत्तरप्रदेश में इनका जन्म 27 दिसंबर 1796 के दिन हुआ था। इनके वालिद (पिता) का नाम था मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग और इनकी वालिदा (माता) का नाम इज़्ज़त-उत-निसा बेग़म था।
मिर्ज़ा ग़ालिब का खानदान मूल रूप से भारत का रहने वाला नहीं था, उनके दादा समरकंद से करीब सन 1750 ई वी के आस पास भारत आये थे वो ये तुर्क परिवार से थे, वो जब समरकंद ईरान से आये तो उस वक़्त मिर्ज़ा कोबान बेग अहमद शाह का शासन था।
उनके दादा ने जयपुर, दिल्ली, लाहौर में काम किया उसके बाद वो काम के सिलसिले में आगरा आ गए और फिर यहीं के होकर रह गए वो सिपाही थे, अलग अलग राजाओं और बादशाहों के साथ उन्होंने काम किया।
मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग जो की मिर्ज़ा ग़ालिब के वालिद थे, उनकी शादी इज़्ज़त-उत-निसा बेग़म के साथ हुई और वो अपने ससुर के घर में ही रहने लगे जहाँ ग़ालिब का जन्म हुआ वो भी एक सिपाही थे।
उन्होंने भी कई जगह काम किया वो लखनऊ के नवाब के यहाँ काम कर रहे थे, उसके बाद उन्होंने हैदराबाद के निज़ाम के यहाँ काम करना शुरू कर दिया उसी दरम्यान अलवर राजस्थान में एक युद्ध के दौरान सन 1803 में उनकी मृत्यु हो गई। उस वक़्त ग़ालिब की उम्र महज़ 5 साल की थी।
पिता की मृत्यु के बाद ग़ालिब की ज़िम्मेदारी उनके चाचा पर आ गई मगर बहुत दिनों तक उनका साया भी ग़ालिब के सर पर नहीं रह सका उनकी भी मृत्यु हो गयी, वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में एक सैन्य अधिकारी थे उनके बाद उनको मिलने वाली पेंशन से ग़ालिब का गुज़ारा हुआ।
शिक्षा
ग़ालिब की शिक्षा के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं वैसे भी उन दिनों घर पर ही पढाई लिखे हुआ करती थी। ग़ालिब की प्रारंभिक शिक्षा ईरान के एक विद्वान् मौलवी मुहम्मद मुवज़्ज़म द्वारा हुई थी जिन्होंने ग़ालिब को फारसी की शिक्षा दी।
वो दौर था की, शादियां बहुत काम उम्र में हो जाया करतीं थीं ग़ालिब की शादी भी जब वो महज़ 13 साल के थे करवा दी गई। उनकी बीवी का नाम उमराव बेग़म था और उनके ससुर का नाम नवाब इलाही बख्श था शादी के कुछ दिनों बाद ग़ालिब अपने परिवार के साथ दिल्ली आ बसे जहाँ उनकी तमाम उम्र बीती।
ग़ालिब और शायरी
ग़ालिब का घर जहाँ था उसके आसपास के घरों में कई शायर रहा करते थे, अकसर वहां महफिलें जैम जाया करतीं थी। बात बात पर उन्ही शायरों में से एक ग़ालिब के पड़ोस में फारसी के बहुत नामवर शायर रहा करते थे। उनका नाम था मुल्ला वली महमूद साथ ही उनके बेटे भी रहा करते थे, उनका नाम भी शायरों की फेहरिश्त में था, ग़ालिब के मकान के करीब ही गुलाबखाना था (फारसी पढ़ने की जगह) इस गुलाबखाने में लोग ना सिर्फ हिन्दुस्तान से बल्कि विदेशों से भी फ़ारसी की तालीम लेने आया करते थे। इन सब बातों और इस खास माहौल का ग़ालिब के ऊपर गहरा असर हुआ। ग़ालिब ने शेर लिखना शुरू कर दिया जब वो महज़ 11 साल के थे, जब एक वो 24 साल के हुए उनका नाम बड़े शायरों में शुमार हो गया, अब वो मुशायरों के लिए बुलाये और जाने लगे थे।
ग़ालिब की निजी ज़िन्दगी
जैसा की ग़ालिब के शेरों उनकी ग़ज़लों से अंदाजा लगाया जा सकता है की, उनकी निजी ज़िन्दगी आमतौर पर खुशहाल नहीं थी वो अपने शेरों अपनी ग़ज़लों में भी अपना दर्द ही बयान करते रहे तमाम उम्र।
उनके एक छोटे भाई थे मिर्ज़ा युसूफ ख़ान उनकी दिमागी हालत ठीक नहीं रहती थी। लाख इलाज के बाद भी उनकी तबियत में कोई सुधार नहीं हुआ वो थक चुके थे भाई का इलाज करवा करवा कर मगर कोई फायदा नहीं हुआ। इसके अलावा उनकी कोई अवलाद नहीं थी, ऐसा नहीं की उनको बच्चे नहीं हुए मगर बदकिस्मती से सारे बच्चे मरे हुए ही पैदा होते।
ये तो थीं वो परेशानियां जो उन्हें कुदरत की तरफ से मिली, कुछ ऐसी परेशानियां थीं जो उन्होंने खुद कड़ी कर रखीं थी अपनी ज़िन्दगी में। उनको जुए की बहुत बुरी लत थी उसके साथ शराब भी रोज़ पिया करते थे, आमदनी का ज़रिया बस उनके चाचा की पेंशन थी जो की पूरी नहीं पड़ती थी। उनको मगर इसके बावजूद वो कहीं जगह ना मिले तो अपने घर में ही अपने दोस्तों के साथ रोज़ शराब पीते और जुआ खेलते जुए की लत की वजह से कई बार उनकी जेल भी जान पड़ा था।
ग़ालिब कौन सी शराब पीते थे ?
जब भी बात ग़ालिब की होती है तो शराब का ज़िक्र ना हो तो ऐसा होगा जैसे अभी बात पूरी नहीं हुई है। जी हाँ, ग़ालिब शराब बहुत पीते थे अब आप ये सोच रहे होंगे की ग़ालिब आख़िर कौन सी शराब पीते थे ? तो आपको जानकर हैरानी होगी की वो थे तो पुरे हिन्दुस्तानी मगर शराब उनको पसंद थी विदेशी वो दीवाने थे, दो ब्रांड्स के Old Tom और Castelon के।
ग़ालिब का बल्लीमारान गली क़ासिम जान में जो घर था। वो था हकीमों वाली मस्जिद के निचे लोग जब जब नमाज़ पढ़ने आते उनको भी कहते ग़ालिब कभी आप भी पढ़ लो नमाज़ मगर चचा ग़ालिब मुस्कुरा कर रह जाते। उनको लोग कहते की मस्जिद के निचे बैठ कर शराब नहीं पीना चाहिए जिसपर ग़ालिब ने ये मशहूर शेर कहा था-
ज़ाहिद शराब पिने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता जहाँ ख़ुदा ना हो
एक बार का क़िस्सा है की, जब ग़ालिब अपना फारसी का दीवान ( ग़ज़लों का संग्रह) लिख रहे थे तब उनकों बहुत वक़्त देना होता था। घर पर लिखने के लिए और उनको शराब की तलब लग जाती मगर पैसे होते नहीं थे। तो वो अपनी बेग़म उमराओ जान के पास गए और कुछ पैसे मांगे जिस पर उन्होंने साफ़ मन कर दिया और कहा की ख़ुदा से मांगिये सच्चे दिल से शायद वो आपकी सून ले। अब ग़ालिब के पास कोई रास्ता बचा नहीं तो उन्होंने ये तारिका भी आज़माने की सोची, साफ़ सुथरे कपडे पहन कर चल पड़े जामा मस्जिद की ओर लोगों को देख कर हैरत हुई की, ग़ालिब और मस्जिद की तरफ खैर वो मस्जिद गए।
इस दरमयान उनका एक शागिर्द उनके घर गया उमराओ जान ने कहा की, आज मियाँ मस्जिद गए हैं। उनके शागिर्द को जैसे यकीं नहीं हुआ अपने कानो पर तब उमराओ ने उसे बताया की आज शराब के लिए उन्हें ऐसे नहीं मिले तो वो ख़ुदा से मांगने गए हैं। शागिर्द को ये बात सुनकर बहुत बुरा लगा वो उनके लिए शराब की एक बोतल लेकर मस्जिद की ओर चल पड़ा।
अभी नमाज़ शुरू होने वाली ही थी की, शागिर्द ने उन्हें आवाज़ दी उसकी आवाज़ सुनते ही ग़ालिब ने उसकी तरफ देखा उसने पानी जेब की तरफ इशारा किया चचा समझ गए और बिना नमाज़ पढ़े ही निकलने लगे। लोगों ने उनसे कहा एक तो कभी नमाज़ पढ़ने आते नहीं आप और आज आये भी तो बिन पढ़े जाने आगे तब ग़ालिब ने कहा जिस चीज़ के लिए आया था वो बिना नमाज़ बिना दुआ ही मिल गई मुझे।
ग़ालिब और बहादुर शाह ज़फर
दौर था बहादुर शाह ज़फर आखरी मुग़ल बादशाह का सन 1850 ईस्वी, बहादुर शाह ज़फर जो की खुद भी एक अच्छे शायर थे। उनके दरबार में शायरों के लिए एक अलग जगह होती। जिसके लिए उस ज़माने के शायरों में होड़ लगी रहती थी, उस ज़माने में उस्ताद ज़ौक़ और मियां मोमिन का भी नाम बड़े शायरों में शामिल था। हर कोई मिर्ज़ा ग़ालिब की तरह चाहता था की, वो बहादुर शाह के दरबार में अपना मुकाम बना ले मगर ये काम इतना आसान नही था किसी के लिए।,
मिर्ज़ा ग़ालिब, मियाँ मोमिन और ज़ौक़ तीनों की आपस में कभी बनी ख़ास कर ग़ालिब और इन दोनों की तो बिलकुल नहीं बनी, ये दोनों ग़ालिब से बेहद नाराज़ रहा करते थे। क्योंकि ग़ालिब शराब पीते थे और जुए की लत भी लगी हुई थी, ये दोनों नमाज़ी थे दौर था शायरी और शायरों का तो एक दूसरे को ये लोग शायरी के ज़रिये ही निचा दिखने का प्रयास करते। एक बार क़िस्सा है की उस्ताद ज़ौक़ बल्लीमारान की गली कासिम जो की मिर्ज़ा ग़ालिब का मुहल्ला था गुज़र रहे थे। किसी ने ग़ालिब से कहा की देखो उस्ताद ज़ौक़ की सवारी जा रही है, ग़ालिब उस वक़्त जुआ खेल रहे थे उन्होंने तुरंत खेल छोड़ा और उनकी पालकी के सामने जा कर एक शेर कहा की-
हुआ है शाह का मुहासिब और फिरे है इतराता !
वरना ग़ालिब की शहर में आबरू क्या है !!
ये सुनकर उस्ताद ज़ौक़ आग बगुला हो गए। उन्होंने ग़ालिब को सबक सिखाने की सोची और इस बात की शिकायत बहद्दुर ज़फर से कर दी जिसपर बहादुर शाह ने हुक्म दिया की ग़ालिब को दरबार में पेश किया जाये।
ग़ालिब दरबार में अगले दिन पेश हुए उसने पूछा गया की, आपने उस्ताद ज़ौक़ के साथ बद्तमीज़ी की है। इस पर आपको क्या कहना है उन्होंने इसका जवाब यूं दिया की, नहीं मैंने उनसे कोई बद्तमीज़ी नहीं की मैं तो अपनी ग़ज़ल का एक शेर पढ़ रहा था। जिसपर बहादुर शाह ने कहा अच्छा ऐसा है तो आप अपनी वो ग़ज़ल मुकम्मल ( पूरी ) कीजिये, ग़ालिब ने वहीं उस शेर पर पूरी ग़ज़ल सुना दी वो ग़ज़ल ये थी-
हर एक बात पे कहते हो तुम की तू क्या है ?
तुम्ही कहो की ये अंदाज़–ए-गुफ़्तगू क्या है ?
रगों में दौड़ते फ़िरने के हम नहीं क़ायल ।
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है ?
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन ।
हमारी जेब को अब हाजते रफू क्या है ?
जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा ।
कुरेदते हो जो अब राख़ जुस्तजू क्या है ?
रही ना ताक़त-ए-गूफ़्तार और अगर हो भी ।
तो किस उम्मीद पे कहिए की आरज़ू क्या है ?
हुआ है शह का मुसाहिब और फ़िरे है इतराता।
वरना ग़ालिब की शहर में आबरू क्या है ?
इस ग़ज़ल को सुनते ही पूरी महफ़िल में वाह वाह की आवाज़ें गुजने लगीं, किसी ने कहा फिर से पढ़िए कोई झूमने लगा ये था, ग़ालिब का अंदाज़- ए – बयाँ।
दरीब – उल – मुल्क़ और नज़्म – उद – दौला
बहुत कोशिशों के बाद मिर्ज़ा ग़ालिब को बहादुर शाह ज़फर के दरबार में जगह मिली। अब उनकी ग़रीबी और फाकाकशी के दिन बीत चुके थे, उन्हें दरबार में दरीब – उल – मुल्क़ और नज़्म – उद – दौला का खिताब मिला, वो साल था सन 1850 का ग़ालिब बहुत खुश थे। अपने बादशाह से और अपनी इस नयी कामयाबी से कुछ दिनों बाद उन्हें दरबार से मिर्ज़ा नौशा का भी खिताब मिला साथ ही उन्हें ज़फर के बेटे फ़क़्र – उद – दीन की पढाई लिखे का ज़िम्मा भी सौंप दिया गया, चूँकि, ग़ालिब का ख़ानदान मूल रूप से ईरान का रहने वाला था, तो उनकी फारसी ज़बान में पकड़ बहुत अच्छी थी इस वजह से उन्हें शाही इतिहास लिखने का भी काम दे दिया गया।
ग़ालिब और दिवाली
ग़ालिब ने कभी भी धर्म को एहमियत नहीं दी, अपने शौक और इंसानियत के आगे। एक बार का किस्सा है की ग़ालिब अपने किसी दोस्त के घर पर थे दिन था दिवाली का। उनके घर पर पूजा हो रही थी पंडीत जी ने सबको टिका लयाया मगर ग़ालिब के सामने से गुज़र गए बिना टिका लगाए, जिसपर ग़ालिब ने उनसे कहा की उन्हें भी टिका लगाया जाये, फिर जब ग़ालिब उनके घर से निकले अपने घर जाने के लिए रस्ते में उन्हें किसी ने टोक कर कहा, ये क्या ? मिर्ज़ा माथे पर टिका और हाथ में मिठाई लिए क्या दिवाली की पूजा करनी भी शुरू कर दी तुमने ऊपर जा कर खुदा को क्या मुँह दिखाओगे ? उसपर ग़ालिब ने उन्हें जवाब दिया तो क्या हुआ ? अब क्या हिन्दुस्तान में बर्फी हिन्दू और इमरती मुसलमान हो गई।
ग़ालिब और उनकी शायरी
ग़ालिब कहते हैं अपने आप के लिए की-
हैं और भी दुनियां में सुख़न वर बहुत अच्छे !
कहते हैं की ग़ालिब का है अंदाज़ – ए – बयाँ और !!
ऐसा नहीं था की, ग़ालिब का ग़ज़ल लिखने के लिए कोई ख़ास वक़्त मुकर्रर था। वो कहीं भी चलते फिरते शेर या पूरी ग़ज़ल पुरी कर लेते थे और आपने रुमाल में गिरह लगा लिया करते थे, फिर जब उनको वक़्त मिलता वो एक एक गिरह खोल कर उस ग़ज़ल या शेर को काग़ज़ पर उतार लिया करते थे। उनको ग़ज़लों में ज़िन्दगी को देखने का नया तरीका था, दर्द से बहरी हुई अश्क़ में डूबी हुई ग़ज़लें कहने के लिए ग़ालिब को हमेशा याद किया जायेगा। आज भी उनकी ग़ज़लों में वही तेज़ी है और आने वाले वक़्तों में भी वो बरकरार रहेगी कई पीढ़ियां उन से सीखती आईं है ग़ज़लें और ना जाने कई पीढ़ियां सीखेंगी। उनसे ग़ज़लों को लिखने का तरीका उन्होंने जो उर्दू ज़ुँबान और शायरी को मुकाम दिलाया आम लोगों में वो शायद किसी शायर ने नहीं किया।
ग़ालिब और 1857 की क्रांति ग़दर
अभी बहुत दिन नहीं गुज़रे थे की, ग़ालिब की ज़िन्दगी में खुशियां आईं हिं थीं वक़्त आया की देश में अंग्रेज़ों ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए थे। 11 मई 1857 के दिन भारतीय फौजी जो की, East India Company के अधीन थे। उन्होंने बग़ावत कर दी जिसका साथ झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई ने भी दिया। उस वक़्त उनको चाहिए था एक ऐसा नाम जो इस विद्रोह को पुरे देश का विद्रोह बना सके और वो नाम था आखरी मुग़ल बादशाह का बहादुर शाह ज़फर के झंडे के तले ये सब इकठ्ठा होकर इस विद्रोह को बढ़ाना चाहते थे। अंग्रेज़ों ने इस विद्रोह को कुचल कर रख दिया और इसका असर ये हुआ की, बहादुर शाह को गिरफ्तार कर बर्मा की जेल में बंद कर दिया और अंग्रेजी सिपाही दिल्ली की गलियों में फ़ैल गए, एक एक विद्रोही को या तो मार देते या गिरफ्तार कर लेते, उनको लाल किले के क़िला – ए – मुअल्ला में एक जेल बना कर क़ैद कर लिया जाता।
सड़कों गलियों में डर और खौफ का ऐसा मंज़र था की रूह कांप जाती थी। सब लोग दर ब दर हो चुके थे, ग़ालिब ये सब अपनी आंखों से देख रहे थे, वो अपनी आँखों के सामने अपने हिन्दुस्तान को बिखरता टूटता देख रहे थे। लाचार बूढ़े ग़ालिब अपनी गंगा जमुना की तेहज़ीब का शहर लुटता सहमे से देख रहे थे।
ग़ालिब ने उन दिनों का ज़िक्र कुछ इस तरह लिखा था अपनी क़लम से-
”सोमवार दोपहर के समय सोलह रमज़ान 1273 हिजरी यानी यानी 11 मई 1857, लालकिले की दीवारों और फाटक में इतना तेज ज़लज़ला आया कि इसे शहर के चारो कोनो तक महसूस किया गया. इन मदहोश सवारों और अक्खड़ प्यादों ने जब देखा कि शहर के दरबाजे खुले हैं और रक्षक मेहमान नवाज़ हैं, दीवानों की तरह इधर-उधर दौड़ पड़े. जिधर किसी अफसर का पाया और जहां उन काबिले-एहतराम (अंग्रेजों) के मकानात दिखे, जब तक अफसरों को मार नहीं डाला और मकानात को तबाह नहीं किया, इधर से मुंह नहीं फेरा.शुक्रवार को दोपहर के समय, 26 मोहर्रम यानी 18 सितंबर को शहर और क़िले पर विजेता सेना ने कब्जा कर लिया., भारी गिरफ्तारी, क़त्लो-ग़ारत और मार-धाड़ की ख़ौफनाक खबरें हमारी गली में पहुंची. लोग डर के कांपने लगे. चांदनी चौक़ के आगे क़त्लेआम जारी था और सड़के ख़ौफ से भरी हुई थी.’
ग़ालिब का दुनियां से जाना
ग़ालिब अब बूढ़े और बहुत कमज़ोर हो चुके थे, उनको तरह तरह की बिमारियों ने घेर लिया था आखिर इस बीमारी ने उनका दम तोड़ दिया। उन्होंने अपनी आखरी साँस ली 15 फरवरी 1869 के दिन उनकी मज़ार हज़रत निजामुद्दीन औलिया के दरगाह के नज़दीक है।
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