मशहूर उर्दू शायर Munawwar Rana का रविवार 15 जनवरी को निधन हो गया, वो लखनऊ के SGPGI Hospital में लम्बे समय से भरती थे.यहाँ उनका किडनी से सम्बंधित बीमारी का इलाज चल रहा था.
आपने कई किस्म की शायरी सुनी पढ़ी होगी दुःख की दर्द की महबूब की शराब की मगर एक शायर ऐसा है जो अपनी माँ पर शायरी करता है मुन्नव्वर राणा Munawwar Rana जब आप इनकी शायरी को ध्यान से सुनेंगे तो उनके शब्दों में आपको आपकी माँ की शक्ल नज़र आने लगेगी ये कमाल है इस शायर का
हम hindeeka में आपको हर उस बात की जानकारी देते है जिसकी आपको ज़रूरत होती है ताकि आप को अपने सवालों के जवाब के लिए कहीं और ना जाना पड़े आज हम बात करने वाले हैं एक अज़ीम उर्दू शायर जिसने शायरी को अपनी शायरी का सहारा लिया अपनी माँ को याद करने के लिए और मजबूर कर दिया की आप उसकी शायरी को पसंद करें आइये बात करते हैं उसी शायरी कुसी मुन्नवर राणा की
हालत नाज़ुक हुई मुन्नव्वर राणा की
लखनऊ के अपोलो हॉस्पिटल में गंभीर हालत में दाखिल हैं मुन्नव्वर राणा उनकी बेटी सुमैया राणा ने मीडिया से इस बात की जानकारी दी उन्होंने बताया की उनके पिता का पिछले मंगलवार को अपोलो अस्पताल में पित्ताशय का ऑपरेशन हुआ था, जिसके बाद से उनकी तबीयत बिगड़ गई. अभी उन्हें जीवनरक्षक प्रणाली पर रखा गया है.
मुन्नव्वर को गले का कैंसर है इसके साथ उन्हें डायलिसिस करवाने की भी ज़रूरत पड़ती रहती है जिसके लिए उन्हें लखनऊ के अपोलो हॉस्पिटल ले जाया गया था जहाँ सिटी स्कैन करने के बाद पता चला की पथरी की वजह से उनका पित्ताशय बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया है जिसके लिए उनका ऑपरेशन भिकिया गया मगर फिर भी उनकी तबियत बिगडती ही चली गई
कौन हैं मुन्नव्वर राणा ?
उर्दू शायरी और खासकर ऐसी शायरी जिसमें आपको मुहोब्बत तो मिलेगी मगर वो किसी माशूक या आशिक के लिए नहीं होगी उसमे आपको मिलेगी माँ की मुहोब्बत उसका एक शेर है जिससे आपको अंदाज़ा होगा उनकी शायरी का
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है
ऐसा नही की उन्होंने सिर्फ और सिर्फ माँ के लिए ही शायरी की है उन्होंने और भी कई विषयों पर आम शायरों जैसी भी शायरी की जिसका भी कोई जवाब नहीं है उनको अपनी सायरी की वजह से कई सारे पुरस्कार भी मिले हैं
मुन्नव्वर राणा का जीवन परिचय
नाम | मुन्नव्वर राणा |
जन्म तिथि | 26 नवम्बर 1952 |
पिता का नाम | अनवर राणा |
माता का नाम | आयशा ख़ातून |
जन्म स्थान | रायबरेली, उत्तरप्रदेश |
पत्नी का नाम | रैना राणा |
पुत्र | तबरेज़ राणा |
पुत्री | सुमैया, फौजिया और उरूसा |
धर्म | इस्लाम |
पेशा | शायरी, ट्रांसपोर्ट |
मुनव्वर राना Munawwar Rana का जन्म 26 नवम्बर 1952 के दिन उत्तरप्रदेश के रायबरेली ज़िले में हुआ, उनके वालिद (पिता) के नाम अनवर राणा उनकी वालिदा का नाम आयशा खातून है। ये आयशा ख़ातून यानि मुनव्वर राना की माँ हैं, जिनसे वो बेइंतेहा प्यार करते हैं। जो आपको उनकी शायरी में साफ नज़र आएगा।
मुनव्वर राना की पैदाइश हुई तो उत्तरप्रदेश के रायबरेली में, मगर उनकी ज़िंदगी का काफी हिस्सा बिता कोलकाता में वही उन्होने अपनी पढ़ाई लिखाई की, और फिर उनकी शादी हो गई। जिसके बाद वो लखनऊ आ बसे अब वो अपने पूरे परिवार के साथ लखनऊ में ही रहते हैं। शायरी का शौक उनको बचपने से था, मगर रोज़ी रोटी के लिए उन्होने Transport के काम को चुना शायद के ये उनका खानदानी काम था।
उनकी शादी रैना राणा के साथ हुई मुनव्वर राणा की तीन बेटियां सुमैया, फौजिया और उरूसा हैं उनका एक बेटा भी है जिसका नाम तबरेज़ राणा है
मुन्नव्वर राणा की पढाई
1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तब देश का बटवारा हुआ जिसमें भारत और पाकिस्तान दो अलग देश बन गए जिसमें मुन्नव्वर के बहुत से रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए मगर उन्के पिता ने भारत में ही रहने का फैसला किया वो मूल रूप से रायबरेली उत्तरप्रदेश के रहने वाले थे मगर काम के सिलसिले में वो कलकत्ता चले गए जहाँ उन्होंने ट्रांसपोट का व्यवसाय शुरू किया
परिवार के साथ मुन्नव्वर भी कलकत्ता चले आये जहाँ उनकी पढाई लिखाई हुई और यहीं से उन्होंने अपनी B.A की डिग्री भी हासिल की
मुन्नव्वर राणा का साहित्यिक सफ़र
मुन्नव्वर राणा अपनी शायरी में उर्दू और हिंदी भाषा का प्रयोग बखूबी करते हैं जिस महफ़िल में उनके आने की खबर हो वहां उनसे पहले उनके चाहने वाले पहुँच जाया करते हैं और जब वो अपनी ग़ज़लों में माँ को याद करते हैं तो सुनने वालों की आँखों से आंसू नहीं रुकते ये करिश्मा है इस अज़ीम शायर का
मुनव्वर को उनकी शायरी के लिए देश विदेश में जाना पहचाना जाता है वो मुशायरों की जान हैं जहां भी आपको हिन्दी उर्दू बोलने समझने वाले लोग मिलेंगे वहाँ मुनव्वर राना को ज़रूर पहचाना जाता है
मुन्नव्वर राणा की किताबे
मुनव्वर ने सिर्फ शायरी ही की है ज़्यादातर और यही उनकी पहचान भी है उनकी शायरी की कई सारी किताबें भी छापी गई जो काफी पसंद की गई आज भी उनकी मांग वैसी ही है जिससे पहले द्दीन हुआ करती ये हैं उनकी किताबें जिन्हें छापा गया
- माँ
- ग़ज़ल गाँव
- पीपल छाँव
- बदन सराय
- नीम के फूल
- सब उसके लिए
- घर अकेला हो गया
- कहो ज़िल्ले इलाही से
- बग़ैर नक्शे का मकान
- फिर कबीर
- नए मौसम के फूल
मुन्नवर राणा को मिले पुरस्कार और सम्मान
कोई भी ऐसा शख्स आपको नहीं मिलेगा जो शायरी को पसंद तो करता होगा और वो मुन्नव्वर राणा को ना पहचानता हो किसी भी कलाकार के लिए ये बहुत बड़े सम्मान की बात होती है की लोग उसको उसके काम की वजह से पहचाने
चूँकि मुन्नवर ने साहित्य की इतनी सेवा की और वो भी एक लम्बे समय तक उसकि लिए उन्हें कई सारे पुरस्कार और सम्मान भी मिले हैं
क्रमांक | साल | पुरस्कार |
1 | 1993 | रईस अमरोहवी पुरस्कार, रायबरेली |
2 | 1995 | दिलकुश पुरस्कार |
3 | 1997 | सलीम ज़ाफरी पुरस्कार |
4 | 2004 | सरस्वती समाज पुरस्कार |
5 | 2005 | ग़ालिब अवार्ड, उदयपुर |
6 | 2005 | डॉ. ज़ाकिर हुसैन पुरस्कार, नई दिल्ली |
7 | 2005 | शहूद आलम अफ्कुफी पुरस्कार, कोलकाता |
8 | 2006 | कविता का कबीर सम्मान, इंदौर |
9 | 2006 | आमिर खुसरो पुरस्कार, इटावा |
10 | 2011 | मौलाना अब्दुल रज्जाक मलीहाबादी पुरस्कार, पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी |
11 | 2012 | ऋतुराज सम्मान पुरस्कार |
12 | 2014 | साहित्य अकादमी पुरस्कार |
13 | भारती परिषद पुरस्कार, अलाहाबाद | |
14 | बज्मे सुखन पुरस्कार,भुसावल | |
15 | अलाहाबाद प्रेस क्लब पुरस्कार, प्रयाग | |
16 | अदब पुरस्कार | |
17 | मीर पुरस्कार | |
18 | हजरत अल्मास शाह पुरस्कार | |
19 | हुमायु कबीर पुरस्कार, कोलकाता | |
20 | मौलाना अबुल हसन नदवी पुरस्कार | |
21 | उस्ताद बिस्मिल्लाह खान पुरस्कार |
मुन्नव्वर राणा के साथ जुड़े कुछ विवाद
चूँकि मुन्नव्वर देश विदेश में एक ख्याति प्राप्त शायर हैं उनकी हर बात को मीडिया से लेकर आम जनता बहुत गंभीरता से लेती है वो जितना अपनी शायरी को लेकर चर्चाओं में रहते हैं उतना ही वो अपने बयानों को लेकर भी चर्चाओं में काफी रहे हैं
राम मंदिर निर्माण – अयोध्या के राम मंदिर और बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2020 में अपना एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था जिसमें विवादित ज़मीन पर राम मंदिर बनाने का आदेश दिया गया था जिसके बाद मुन्नवर ने तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई के लिए कहा था की उन्होंने न्याय नहीं किया उन्होंने आदेश दिया है
चार्ली हेब्दो विवाद – फ़्रांस के एक स्कूल में चार्ली हेब्दो के अंक में छपे हज़रत मुहोम्मद के फोटो के लिए किसी ने हत्या कर दी थी जिसका समर्थन मुन्नव्वर ने किया था उन्होंने ने कहा था कैरिकेचर पैगंबर मुहम्मद और इस्लाम को बदनाम करने के लिए बनाए गए हैं। इस तरह की हरकतें लोगों को चरम कदम उठाने के लिए मजबूर करती हैं जैसा कि फ्रांस के मामले में हुआ। उन्होंने आगे कहा कि अगर वह उनकी जगह होते तो वह भी ऐसा ही करतेउनके इस बयान के बाद उत्तरप्रदेश पुलिस ने उनपर मामला दर्ज किया था
तालिबान के पक्षधर – मुन्नव्वर ने एक बार कहा था की तालिबान सिर्फ अपने देश के लिए लड़ रहे हैं वो कोई आतंकी संगठन नहीं हैं
मुनव्वर राना की कुछ मशहूर ग़ज़लें
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मिरे हिस्से में माँ आई
यहाँ से जाने वाला लौट कर कोई नहीं आया
मैं रोता रह गया लेकिन न वापस जा के माँ आई
अधूरे रास्ते से लौटना अच्छा नहीं होता
बुलाने के लिए दुनिया भी आई तो कहाँ आई
किसी को गाँव से परदेस ले जाएगी फिर शायद
उड़ाती रेल-गाड़ी ढेर सारा फिर धुआँ आई
मिरे बच्चों में सारी आदतें मौजूद हैं मेरी
तो फिर इन बद-नसीबों को न क्यूँ उर्दू ज़बाँ आई
क़फ़स में मौसमों का कोई अंदाज़ा नहीं होता
ख़ुदा जाने बहार आई चमन में या ख़िज़ाँ आई
घरौंदे तो घरौंदे हैं चटानें टूट जाती हैं
उड़ाने के लिए आँधी अगर नाम-ओ-निशाँ आई
कभी ऐ ख़ुश-नसीबी मेरे घर का रुख़ भी कर लेती
इधर पहुँची उधर पहुँची यहाँ आई वहाँ आई
भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है
भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है
मोहब्बत करने वाला इस लिए बरबाद रहता है
अगर सोने के पिंजड़े में भी रहता है तो क़ैदी है
परिंदा तो वही होता है जो आज़ाद रहता है
चमन में घूमने फिरने के कुछ आदाब होते हैं
उधर हरगिज़ नहीं जाना उधर सय्याद रहता है
लिपट जाती है सारे रास्तों की याद बचपन में
जिधर से भी गुज़रता हूँ मैं रस्ता याद रहता है
हमें भी अपने अच्छे दिन अभी तक याद हैं ‘राना’
हर इक इंसान को अपना ज़माना याद रहता है
मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
अब इस से ज़ियादा मैं तिरा हो नहीं सकता
दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें
रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता
बस तू मिरी आवाज़ से आवाज़ मिला दे
फिर देख कि इस शहर में क्या हो नहीं सकता
ऐ मौत मुझे तू ने मुसीबत से निकाला
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता
इस ख़ाक-ए-बदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी
क्या इतना करम बाद-ए-सबा हो नहीं सकता
पेशानी को सज्दे भी अता कर मिरे मौला
आँखों से तो ये क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता
दरबार में जाना मिरा दुश्वार बहुत है
जो शख़्स क़लंदर हो गदा हो नहीं सकता
मुख़्तसर होते हुए भी ज़िंदगी बढ़ जाएगी
मुख़्तसर होते हुए भी ज़िंदगी बढ़ जाएगी
माँ की आँखें चूम लीजे रौशनी बढ़ जाएगी
मौत का आना तो तय है मौत आएगी मगर
आप के आने से थोड़ी ज़िंदगी बढ़ जाएगी
इतनी चाहत से न देखा कीजिए महफ़िल में आप
शहर वालों से हमारी दुश्मनी बढ़ जाएगी
आप के हँसने से ख़तरा और भी बढ़ जाएगा
इस तरह तो और आँखों की नमी बढ़ जाएगी
बेवफ़ाई खेल का हिस्सा है जाने दे इसे
तज़्किरा उस से न कर शर्मिंदगी बढ़ जाएगी
दोहरा रहा हूँ बात पुरानी कही हुई
दोहरा रहा हूँ बात पुरानी कही हुई
तस्वीर तेरे घर में थी मेरी लगी हुई
इन बद-नसीब आँखों ने देखी है बार बार
दीवार में ग़रीब की ख़्वाहिश चुनी हुई
ताज़ा ग़ज़ल ज़रूरी है महफ़िल के वास्ते
सुनता नहीं है कोई दोबारा सुनी हुई
मुद्दत से कोई दूसरा रहता है हम नहीं
दरवाज़े पर हमारी है तख़्ती लगी हुई
जब तक है डोर हाथ में तब तक का खेल है
देखी तो होंगी तुम ने पतंगें कटी हुई
जिस की जुदाई ने मुझे शाइर बना दिया
पढ़ता हूँ मैं ग़ज़ल भी उसी की लिखी हुई
लगता है जैसे घर में नहीं हूँ मैं क़ैद हूँ
मिलती हैं रोटियाँ भी जहाँ पर गिनी हुई
साँसों के आने जाने पे चलता है कारोबार
छूता नहीं है कोई भी हाँडी जली हुई
ये ज़ख़्म का निशान है जाएगा देर से
छुटती नहीं है जल्दी से मेहंदी लगी हुई
थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए
थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए
हम अपनी क़ब्र-ए-मुक़र्रर में जा के लेट गए
तमाम उम्र हम इक दूसरे से लड़ते रहे
मगर मरे तो बराबर में जा के लेट गए
हमारी तिश्ना-नसीबी का हाल मत पूछो
वो प्यास थी कि समुंदर में जा के लेट गए
न जाने कैसी थकन थी कभी नहीं उतरी
चले जो घर से तो दफ़्तर में जा के लेट गए
ये बेवक़ूफ़ उन्हें मौत से डराते हैं
जो ख़ुद ही साया-ए-ख़ंजर में जा के लेट गए
तमाम उम्र जो निकले न थे हवेली से
वो एक गुम्बद-ए-बे-दर में जा के लेट गए
सजाए फिरते थे झूटी अना जो चेहरों पर
वो लोग क़स्र-ए-सिकंदर में जा के लेट गए
सज़ा हमारी भी काटी है बाल-बच्चों ने
कि हम उदास हुए घर में जा के लेट गए
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है
मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इन को काम दो
एक इमारत शहर में काफ़ी पुरानी और है
ख़ामुशी कब चीख़ बन जाए किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बे-ज़बानी और है
ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है
फिर वही उक्ताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी सी जवानी और है
बस इसी एहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सियानी और है
हम कुछ ऐसे तिरे दीदार में खो जाते हैं
हम कुछ ऐसे तिरे दीदार में खो जाते हैं
जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं
मुस्तक़िल जूझना यादों से बहुत मुश्किल है
रफ़्ता रफ़्ता सभी घर-बार में खो जाते हैं
इतना साँसों की रिफ़ाक़त पे भरोसा न करो
सब के सब मिट्टी के अम्बार में खो जाते हैं
मेरी ख़ुद्दारी ने एहसान किया है मुझ पर
वर्ना जो जाते हैं दरबार में खो जाते हैं
ढूँढने रोज़ निकलते हैं मसाइल हम को
रोज़ हम सुर्ख़ी-ए-अख़बार में खो जाते हैं
क्या क़यामत है कि सहराओं के रहने वाले
अपने घर के दर-ओ-दीवार में खो जाते हैं
कौन फिर ऐसे में तन्क़ीद करेगा तुझ पर
सब तिरे जुब्बा-ओ-दस्तार में खो जाते हैं
मुझ को गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
मुझ को गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
ज़िंदगी बाँध ले सामान-ए-सफ़र जाना है
घर की दहलीज़ पे रौशन हैं वो बुझती आँखें
मुझ को मत रोक मुझे लौट के घर जाना है
मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ
जिस के माँ बाप को रोते हुए मर जाना है
ज़िंदगी ताश के पत्तों की तरह है मेरी
और पत्तों को बहर-हाल बिखर जाना है
एक बे-नाम से रिश्ते की तमन्ना ले कर
इस कबूतर को किसी छत पे उतर जाना है
चले मक़्तल की जानिब और छाती खोल दी हम ने
चले मक़्तल की जानिब और छाती खोल दी हम ने
बढ़ाने पर पतंग आए तो चर्ख़ी खोल दी हम ने
पड़ा रहने दो अपने बोरिए पर हम फ़क़ीरों को
फटी रह जाएँगी आँखें जो मुट्ठी खोल दी हम ने
कहाँ तक बोझ बैसाखी का सारी ज़िंदगी ढोते
उतरते ही कुएँ में आज रस्सी खोल दी हम ने
फ़रिश्तो तुम कहाँ तक नामा-ए-आमाल देखोगे
चलो ये नेकियाँ गिन लो कि गठरी खोल दी हम ने
तुम्हारा नाम आया और हम तकने लगे रस्ता
तुम्हारी याद आई और खिड़की खोल दी हम ने
पुराने हो चले थे ज़ख़्म सारे आरज़ूओं के
कहो चारागरों से आज पट्टी खोल दी हम ने
तुम्हारे दुख उठाए इस लिए फिरते हैं मुद्दत से
तुम्हारे नाम आई थी जो चिट्ठी खोल दी हम ने
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
लड़कियाँ धान के पौदों की तरह होती हैं
उड़ के इक रोज़ बहुत दूर चली जाती हैं
घर की शाख़ों पे ये चिड़ियों की तरह होती हैं
सहमी सहमी हुई रहती हैं मकान-ए-दिल में
आरज़ूएँ भी ग़रीबों की तरह होती हैं
टूट कर ये भी बिखर जाती हैं इक लम्हे में
कुछ उमीदें भी घरोंदों की तरह होती हैं
आप को देख के जिस वक़्त पलटती है नज़र
मेरी आँखें मिरी आँखों की तरह होती हैं
ये दरवेशों की बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
ये दरवेशों की बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
लिबास-ए-ज़िंदगी फट जाएगा मैला नहीं होगा
शेयर-बाज़ार में क़ीमत उछलती गिरती रहती है
मगर ये ख़ून-ए-मुफ़्लिस है कभी महँगा नहीं होगा
तिरे एहसास की ईंटें लगी हैं इस इमारत में
हमारा घर तिरे घर से कभी ऊँचा नहीं होगा
हमारी दोस्ती के बीच ख़ुद-ग़र्ज़ी भी शामिल है
ये बे-मौसम का फल है ये बहुत मीठा नहीं होगा
पुराने शहर के लोगों में इक रस्म-ए-मुरव्वत है
हमारे पास आ जाओ कभी धोका नहीं होगा
ये ऐसी चोट है जिस को हमेशा दुखते रहना है
ये ऐसा ज़ख़्म है जो उम्र भर अच्छा नहीं होगा
मुन्नव्वर राणा से जुड़े कुछ अन्य सवाल F & Q
मुन्नव्वर राणा की तबियत कैसी है ?
लखनऊ के अपोलो हॉस्पिटल में गंभीर हालत में दाखिल हैं मुन्नव्वर राणा उनकी बेटी सुमैया राणा ने मीडिया से इस बात की जानकारी दी उन्होंने बताया की उनके पिता का पिछले मंगलवार को अपोलो अस्पताल में पित्ताशय का ऑपरेशन हुआ था, जिसके बाद से उनकी तबीयत बिगड़ गई. अभी उन्हें जीवनरक्षक प्रणाली पर रखा गया है
मुन्नव्वर राणा को साहित्य आकादमी पुरस्कार कब मिला था ?
मुन्नव्वर राणा को साहित्य आकादमी पुरस्कार 2014 में मिला था
मुन्नव्वर राणा नें कहाँ तक पढ़ी की है ?
परिवार के साथ मुन्नव्वर भी कलकत्ता चले आये जहाँ उनकी पढाई लिखाई हुई और यहीं से उन्होंने अपनी B.A की डिग्री भी हासिल की
मुनव्वर राणा का निधन कब हुआ?
मशहूर उर्दू शायर Munawwar Rana का रविवार 15 जनवरी को निधन हो गया, वो लखनऊ के SGPGI Hospital में लम्बे समय से भरती थे.यहाँ उनका किडनी से सम्बंधित बीमारी का इलाज चल रहा था.
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