Shiv Kumar Batalvi in hindi | Birha da Sultan

अमृता प्रीतम उनको “बिरहा दा सुल्तान”  कहतीं थीं यानि बिरहा का बादशाह. आज हम बात कर रहे हैं पंजाब के बहुत ही मशहूर शायर शिव कुमार बटालवी Shiv Kumar Batalvi की पंजाबी का वो शायर जो अपनी क़लम में स्याही नहीं बल्कि स्याही की जगह आंसुओं को भर कर काग़ज़ पर लिखा करता था. 35 साल तक क्या पता उसने ज़िंदगी को जिया की दर्द को, मगर जो उसने लिखा वो उसको दर्द लिखा और दर्द से ही लिखा लगता है।

कौन थे शिव कुमार बटालवी

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Shiv Kumar Batalvi

23 जुलाई 1936 के दिन पाकिस्तान के पंजाब में शंकरगढ़ तहसील के गाँव बड़ा पिंडा लोहटिया में पंडित कृष्ण गोपाल के घर में इनकी पैदाइश हुई. पंडित जी उस शहर के जाने माने आदमी थे, वो सरकारी महकमे में तहसीलदार का काम किया करते थे उस वक़्त फिर कुछ सालों बाद एक मुल्क आज़ाद हुआ। और एक मुल्क के दो टुकड़े हुए हिन्दू जो थे पाकिस्तान में उन्हे हिंदुस्तान आना पड़ा और मुस्लिम जो थे हिंदुस्तान में उन्हे पाकिस्तान जाना पड़ा किसी ने ये जान बुझ कर किया तो किसी ने किसी मजबूरीकी वजह से किया. खैर पंडित कृष्ण गोपाल को भी पाकिस्तान छोड़ कर हिंदुस्तान आना पड़ा और वो हिंदुस्तान के पंजाब में बटाला में आ कर रहने लगे वो यहाँ भी तहसीलदार के तौर पर काम करने लगे और शिव कुमार की शुरुवाती पढ़ाई भी यहीं बटला में ही हुई। और उन्होने इस शहर को अपने नाम के साथ तमाम उम्र रखा शिव कुमार बटालवी.

शिव कुमार बटालवी की पढाई लिखाई

स्कूली पढ़ाई खत्म होने के बाद साल 1953 में उन्होने पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक की, फिर कुछ दिनों बाद उन्होने हिमांचल प्रदेश के एक कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया मगर कुछ दिन बाद उन्होने ने पढ़ाई बीच में छोड़ दी. इस तरह से बीच बीच में किसी काम से उनका मन ऊब जाता और वो दूसरे रास्ते की तलाश में लग जाते. ये बेचैनी की शुरुवात थी उनकी जो झलकती थी उनके पूरे शख्ससियत में तमाम उम्र नज़र आई, शिव कुमार बटालवी Shiv Kumar Batalvi की इस आदत से उनके पिता के साथ कभी नहीं बनी वो चाहते थे की, शिव पढ़ लिख कर कुछ ऐसा काम करें जिससे उनकी ज़िंदगी स्थिर हो जाए और वो खुशी खुशी ज़िंदगी बिता सके.

शिव कुमार की मुहोब्बत “मैना”

उनको पहले पहल मूहोब्बत हुई जब वो एक मेले में दोस्तों के साथ घूमने गए थे। वहाँ एक लड़की थी जो पास के किसी गाँव से मेले में घूमने आई थी, उस लड़की से उन्हे इस कदर मूहोब्बत हुई की उन्होने उस लड़की के गाँव का पता लगाया और उस लड़की के भाई से दोस्ती कर ली. और उस दोस्त से मिलने के बहाने वो रोज़ाना उसके घर जाने लगे और दोनों का मिलना इस बहाने हो जाता था, कुछ दिनों बाद पता चला की उस लड़की को कोई ऐसी बीमारी हो गई है जिसका इलाज नहीं था उस वक़्त. और इस बीमारी ने आखिरकार उस बीमारी ने उस लड़की को शिव कुमार बटालवी Shiv Kumar Batalvi से छिन लिया और शिव अकेले हो गए और शिव ने उस लड़की की याद में के ग़ज़ल लिखी “मैना”.

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आज दिन चढ़ेया तेरे रंग वरगा फूल सा है खिला आज दिन

ज़िंदगी जैसे तैसे पटरी पर आई, और इसी बीच उन्हे उस वक़्त के पंजाबी ज़ुबान के एक बहुत बड़े लेखक गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी की लड़की से मूहोब्बत हो गई। ज़िंदगी में अब लगा के ठहराव आ जायगा उनकी मगर फिर उन्हे ठहराव से क्या वास्ता था किस्मत में लिखा था. उनके शायर होना और एक ऐसा शायर जो न सिर्फ शायरी लिखे बल्कि अशकों से लिखे, प्यार तो दोनों एक दूसरे से बहुत करते थे मगर फिर ये जाती धर्म भी तो कोई चीज़ है और इसी ने दोनों को अलग कर दिया, आखिरकार उस लड़की की शादी एक ब्रिटिश नागरिक से हो गई और वो ब्रिटेन चली गई, और ये दर्द शिव के अंदर तक चला गया उस दर्द की चादर जो उस वक़्त शिव ने ओढ़ी ज़िंदगी भर उसे ओढ़े रहे । उसी में ज़िंदगी तमाम कर ली. इस दरमायान उन्होने शराब पीनी शुरू कर दी और खूब पीने लगे और उसी दर्द के दरमायान उन्होने अपनी बहुत ही मशहूर ग़ज़ल “आज दिन चढ़ेया तेरे रंग वरगा फूल सा है खिला आज दिन” लिखी। आपने जरूर सुनी होगी राहत फ़तह अली ख़ान की आवाज़ में फिल्म का नाम था लव आज कल ये ग़ज़ल सूनकर ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं की, कितना दर्द है लिखने वाले की सोच में वो किसी हालत में लिख रहा है ज़रा एक बार और सून कर देखिये. 

शिव कुमार बटालवी की शादी

क्या पता क्या गुज़री उनपर और कैसे गुज़री उन्होने तब तक की ज़िंदगी देखने वाले उन्हे चाहने वाले उनके रिश्त्तेदार दोस्त सब उनकी हालत से परेशान रहने लगे. फिर बहुत मुश्किल से उनको शादी के लिए तैयार किया गया और सन 1967 मेन उनकी शादी करा दी गई। शिव कुमार बटालवी Shiv Kumar Batalvi की दुल्हन का नाम था अरुणा, मगर वो प्यार जो उन्हे मिला नहीं उसकी कसक उनके दिल से तब भी नहीं गई. वो अक्सर खोये खोये से रहते खैर उन्होने ने ख़ुद को संभाला और ज़िंदगी जीने की कोशिश करने लगे वैसे जैसा सब चाहते थे फिर आगे चल कर उन्हे दो बेटियाँ भी हुईं।

वो जैसे इस पूरी दुनियाँ से ही नाराज़ थे वो लोगों से मिलना जुलना ज़्यादा पसंद नहीं करते थे, पहले तो वो कवि सम्मेलनों में जाया भी करते थे मगर बाद में उन्होने वहाँ भी जाना बंद कर दिया। वो लोगों के दोहरे रवैये से परेशान रहते  वो कहते थे की शायरी आजकल कोई भी करने लगा है, सिर्फ शब्दों के हेर फेर से शायरी नहीं होती वो जज़्बात जो दिल से निकले और शब्दों में ढल जाए वो शायरी होती है। और वो तब ही हो सकती है जब कोई उस ज़िंदगी को जिये भी जिस ज़िंदगी को वो काग़ज़ पर लिख भी रहा है. खैर बहुत मानने के बाद एक बार 1970 में वो बंबई जो अब मुंबई है में एक मुशायरे में गए और उन्हे देखते ही जैसे सन्नाटा छा गया और उन्होने वहाँ अपनी एक महशूर ग़ज़ल सुनाई “ एक कूदी जिददा नाम मूहोब्बत गुम है” सारा हाल बिलकुल चुपचाप उनको सुनता रहा

  एक बार उन्होने अमृता प्रीतम को अपनी एक ग़ज़ल सुनाई जो ये थी.

एह मेरा गीत किसे ना गाणा

एह मेरा गीत मैं आपे गा के

भलके ही मर जाणा.

सुनकर अमृता प्रीतम ने कहा “बस कर वीरा बस कर दर्द और ज़्यादा नहीं सून सकती”.

शिव कुमार बटालवी की शराब की आदत

शराब पी कर अक्सर शिव सड़कों पर गया करते अपनी ग़ज़लें और कोई उन्हे नहीं टोकता था, उनकी आवाज़ में वो दर्द होता था जो उनकी शायरी में था. वैसे ऐसे दर्द अक्सर होते हैं लोगों को मगर जो दर्द को जी जाए वो शायर होता है और शायर ही दर्द की एक एक परते अलग करता है दुनियाँ के सामने.

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शिव कुमार की ग़ज़लें

 उनकी लिखी ग़ज़लें और गीत सारे मशहूर गायकों ने अपनी आवाज़ में गाये । चाहे वो पाकिस्तान के हों या हिंदुस्तान के जगजीत सिंह, ग़ुलाम अली नूसरत फतेह अली, खान राहत फतेह अली खान वगैरह.

शिव कुमार बटालवी और साहित्य अकादमी पुरुस्कार

सिर्फ 24 साल की चोटी सी उम्र में उनकी एक किताब छपी “पीड़ां दा परागा” जो की उन दिनो बहुत मशहूर हुई, और सन 1965 में उन्होने एक नाटक लिखा जैसा नाम था “लूणा” और इसके लिए उन्हे साहित्य आकदमी पुरस्कार से नवाज़ा गया और उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 28 साल की थी.  आज भी दर्द और शायरी की बात की जाती है तो शिव कुमार बटवाली का नाम याद आ ही जाता है.

शिव कुमार बटालवी का निधन

 खैर शिव अपनी शादी के बाद चंडीगढ़ चले गए और वहाँ स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में काम करने लगे बहैसियत पीआरओ. अब उनकी तबीयत खराब होने लगी थी उन्होने सब छोड़ा मगर शराब नहीं छोड़ सके, और उनके लिवर में सिरोसिस की वजह से उनकी जवानी में मौत की ख़्वाहिश पूरी हुई 7 मई 1973 को महज़ 36 साल की उम्र में पठानकोट में अपने ससुराल में उनकी बेचैनी को आराम मिला.

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