ek doctor ke shayar ban jane ki kahani majrooh sultanpuri

कौन हैं मजरूह सुल्तानपुरी

कभी – कभी ऐसा होता है की, रचनाएँ रचियता से बड़ी हो जाती है वैसी ही एक रचना है मेरा ख्याल है आपने सुनी होगी यक़ीनन सुनी होगी।

मैं अकेला ही चला था जानिब – ए – मंज़िल मगर

लोग  साथ  आते  गए  और  कारवां  बनता  गया

अगर आप पुराने फ़िल्मी गानों के शौक़ीन हैं तो, आपने रेडियो पर या किसी तरह ज़रूर मजरूह सुल्तानपुरी का नाम सुना होगा जी हाँ मजरूह सुल्तानपुरी उर्दू अदब का एक बड़ा नाम फ़िल्मी गाने हो ग़ज़ल हो नज़्म हो इनका कमाल आपको हर जगह नज़र आयेगा।

मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म 1 अक्टूबर 1919 उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ ज़िले के निज़ामाबाद में हुआ था। उनकी पुष्तैनी ज़मीन सुल्तानपुर में थी उनके पिता पुलिस विभाग में काम किया करते थे, वो ज़माना ब्रिटिश सरकार का था इसके बावजूद उनके पिता नहीं चाहते थे की, उनकी औलाद अँग्रेज़ी ज़ुबान सीखे।

असरारुल हसन ख़ान ये था असल में मजरूह सुल्तानपुरी का नाम ,तो बहरहाल उनके पिता चाहते नहीं थे की वो अँग्रेज़ी सीखे तो उन्हें मदरसे में दाख़िल करवाया गया जहाँ से उन्होंने अरबी, फारसी और उर्दू ज़ुबानों की तालीम हासिल की।

उनकी शादी फिरदौस जहान सुल्तानपुरी से हुई थी। उनकी 2 बेटियां और 2 बेटे हैं बेटियों के नाम हैं, नौगुल और सबा बेटों के नाम हैं इरम और अंदलीब सुल्तानपुरी।

असरारुल हसन ख़ान से मजरूह सुल्तानपुरी तक

मदरसे की तालीम ख़त्म कर मजरूह लखनऊ के तकमील उल तिब चले गए यूनानी चिकित्सा सिखने के लिए। वहां से इस पद्धति को सिखने के बाद वो वापस लौट आये और एक सफल यूनानी चिकित्सक के तौर पर इलाज करने लग गए।

भले हाथ में उनके दवाइयां थीं मगर ज़ेहन में तो शायरी मचल रही थी, एक बार वो किसी मुशायरे में गए जहाँ उन्हें मौका मिला अपनी ग़ज़ल सुनाने का उनकी वो ग़ज़ल वहां मौजूद लोगों ने खूब पसंद की, उनकी इतनी हौसला आफज़ाई की गई की उन्होंने अपना पूरा ध्यान शायरी की तरफ मोड़ लिया। वो अब मुशायरों में जाने लगे और उन्हें मुशायरे में शिरकत के लिया बुलाया भी जाने लगा।

ऐसे ही उन्हें एक बार सन 1945 में  बोम्बे ( मुंबई ) से एक मुशायरे के लिए बुलाया गया, ये मुशायरा सबो सिद्दीक़ी इंस्टिट्यूट ने आयोजित किया था। वो अपने साथियों के साथ वहां गए एक एक कर के सब शायरों ने अपने कलाम पढ़े जब मजरूह साहब की बारी आई तो, उन्होंने भी अपना कलाम पढ़ा लोग खामोशी से उन्हें सुनते रहे और उनकी शायरी को वहां खूब पसंद किया गया।

सुनने वालों में वहां उस ज़माने के के एक फ़िल्मकार ए एस कारदार भी थे, उन्हें भी उनकी शायरी पसंद आई वो चाहते थे की, मजरूह साहब उनकी फिल्मों के लिए गाने लिखें मगर मजरूह फिल्मों में गाने लिखने को तैयार नहीं थे। वो फिल्मों में गाने लिखकर अपने कद को अदबी लोगों के बीच घटना नहीं चाहते थे।

मजरूह सुल्तानपुरी का फ़िल्मी सफर

मजरूह सुल्तानपुरी की ज़िन्दगी एक नज़र में 
असल नाम असरारुल हसन ख़ान
कब मनाया जाता है मजरूह सुल्तानपुरी
जन्म दिन 1 अक्टूबर 1919
पिता का नाम ज्ञात नहीं
माता का नाम ज्ञात नहीं
पत्नी का नाम फिरदौस जहान सुल्तानपुरी
संतान 2 बेटियां और 2 बेटे
पेशा शायरी, फिल्मों में गाने लिखना
सम्मान एवं पुरस्कार महाराष्ट्र उर्दू अकादमी,दादा साहब फालके पुरूस्कार
मध्यप्रदेश सरकार के इक़बाल पुरस्कार ,महाराष्ट्र सरकार के संत ज्ञानेश्वर पुरूस्कार
निधन 25 मई सन 2000

इस बात जो जानकार कारदार साहब गए मजरूह साहब के उस्ताद जिगर मुरादाबादी के पास उन्होंने उनसे कहा की, वो उनकी सिफ़ारिश कर दें मजरूह साहब से की, वो उनकी फिल्मों के लिए गाने लिखे तब जिगर साहब ने कहा की वो बात करेंगे अपने शागिर्द मजरूह से उन्होंने उनसे कहा की, अगर वो फिल्मों में गाने लिखेंगे तो उनको अच्छे खासे पैसे मिलेंगे जिनसे वो अपने परिवार वालों की मदद भी कर सकेंगे कुछ देर सोचने के बाद मजरूह साहब उनकी फिल्म में गाने लिखने के लिए तैयार हो गए।

कारदार साहब चाहते थे की, इस से पहले की मजरूह साहब अपना मन बदल दें वो जल्दी से जल्दी अपने संगीतकार नौशाद साहब के पास ले गए और उन्होंने दोनों की मुलाक़ात करावा दी। नौशाद साहब ने उन्हें एक धून सुनाई और कहा की आप इस धून को दिमाग में रखते हुए कोई लाइन लिखें उस पर मजरूह साहब ने बिना देरी किये लिखा-

जब उसने गेंसू बिखराये

बादल आये झूम के

मजरूह साहब को उनकी ये लाइन पसंद आई उन्होंने भी बिना देर किये अपनी फिल्म शाहजहां के लिए बतौर गीतकार मजरूह साहब को फाइनल कर लिया। के एल सहगल ने मजरूह की लिखी एक ग़ज़ल गाई जो आज भी बहुत मशहूर है जो इसी फिल्म का एक गाना था-

जब दिल ही टूट गया

हम जी के क्या करेंगे

के एल सहगल को ये ग़ज़ल इतनी पसंद आई की, उन्होंने ये कहा था की जब उनकी मृत्यु हो जाये उनकी अंतिम यात्रा में ये ग़ज़ल चलाई जाये इस बने असरारुल हसन ख़ान मजरूह सुल्तानपुरी और आगाज़ हुआ उनके फ़िल्मी सफर का।

मजरूह सुल्तानपुरी और उनका सम्मान

वैसे तो किसी को सम्मान या पुरूस्कार देना मात्र एक औपचारिकता है, असल सम्मान तो वो होता है जो लोग किसी के दुनिया से चले जाने के बाद भी उस को याद करती रहे। जैसा की मजरूह साहब के साथ हुआ आज भी उनके लिखे गाने ना सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि सारी दुनिया में सुने जाते हैं।

दुनिया की नज़र में जो सम्मान मजरूह साहब को दिए गए वो कुछ ऐसे दिए उनकी एक किताब ग़ज़लों की छपी जो आज भी पसंद की जाती है, उसका नाम है “ग़ज़ल” जिसके लिए उन्हें महाराष्ट्र उर्दू अकादमी से  पुरूस्कार मिला था। एक बात आएको और शायद नहीं पता होगी की मजरूह साहब पहले ऐसे फिल्मों में गाने लिखने वाले गीतकार थे, जिन्हे दादा साहब फालके पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था।

इसके अलावा मजरूह साहब को मध्यप्रदेश सरकार के इक़बाल और महाराष्ट्र सरकार के संत ज्ञानेश्वर पुरूस्कार से भी सम्मानित किया गया था।

मजरूह सुल्तानपुरी एक वामपंथी

मजरूह साहब एक शायर थे। उनके अंदर विद्रोह तो था ही इस नाते वो वामपंथी विचार धारा से बहुत प्रभावित थे, उस ज़माने के मशहूर अदाकार बलराज साहनी जो की खुद भी एक वामपंथी थे। दोनों को उस ज़माने में अपनी इस विचारधारा के चलते सन 1949 में जेल जाने की नौबत आ गई, उन्हें अदालत में पेश किया गया और उनसे कहा गया किया की वो माफ़ी मांग लें नहीं तो उन्हे दो साल की सज़ा हो सकती है। मगर उन्होंने माफ़ी मांगने से साफ़ इंकार कर दिया फिर अदालत ने उन्हें 2 साल की सज़ा दे दी और उन्हें जेल भेज दिया गया।

जब वो जेल में थे अब उनका परिवार बाहर परेशानियों से जूझ रहा था, उनकी बेटी अब बड़ी हो गई थी। आमदनी का कोई जरिया नहीं था हालत फाकाकशी के आ गए, किसी तरह ये बात राजकपूर को पता चली उन्होंने पेशकश की मदद की मगर मजरूह तो फिर मजरूह थे उन्होंने इस बात से इंकार कर दिया।

फिर राजकपूर साहब उनके लिखे गाने “दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई” को अपनी फिल्म के लिए खरीद लिया उस वक़्त उन्होंने इस एक गान के लिए 1000 रुपए दिए थे।

मजरूह सुल्तानपुरी का आखरी सफर

लोग चले जाते हैं मगर उनकी यादें हमेशा ज़ेहन में ताज़ा रहती हैं, अगर वो जाने वाला कोई शायर हो तो फिर बात ही क्या, उनकी लिखी ग़ज़लें उनके गीत सदियों सदियों तक सुने और दोहराये जाते हैं। ऐसे ही मजरूह साहब भी चले गए मगर उनके लिखे गीत आज भी बड़े शौक से सुने और गुनगुनाये जाते है।

25 मई सन 2000 को इस अज़ीम शायर ने दुनिया को अलविदा कहा और चला गया। मजरूह साहब ने 1950 से 60 के दशक के बीच फ़िल्मी गानों के जगत में राज किया 300 फिल्मों के लिए लगभग 4000 गाने लिखे वो भी एक से बढ़कर एक।

 

आपको मजरूह साहब की ये जानकारी कैसी लगी ज़रूर कमेंट कर बताएं।

 

 

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