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amir khusro ek shayar ek sufi kaun the janiye

अगर आप उर्दू शायरी या हिंदी कविता को चाहने वाले हैं तो आपने ये शेर ज़रूर सुना होगा-

ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ

कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ

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Amir Khusaro

मगर शायद आप ये ना जानते हों की, ये शेर लिखा किसने है और अगर आप ये जानते होंगे की ये किसने लिखा है तो शायद आप ये ना जानते हों की उन्होंने ने क्या-क्या दिया है भारत और भारतीय संगीत भारतीय साहित्य को। तो आइये जानते हैं की, ये शेर किसका है ? और और हम बात किसकी करने वाले हैं उनका नाम है हज़रत आमिर खुसरो Amir Khusro 

बात है चौदहवीं सदी की दिल्ली की सरहदों के नज़दीक एक शायर न सिर्फ शायर संगीतकार ना सिर्फ संगीतकार एक गायक भी रहा करता था। जिसको लोग आमिर खुसरो Amir Khusro के नाम से जानते थे, वैसे उनका वास्तविक नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन आमिर खुसरो था। नाम शायद कुछ ज़्यादा लंबा था इसलिए सहूलियत के लिए लोग उन्हें आमिर खुसरो के नाम से जानते और पुकारते थे।

आमिर खुसरो का खानदान बादशाहों के दरबार में दरबारियों की तरह रहा करता था, यहाँ तक की खुद आमिर खुसरो ने अपनी ज़िन्दगी में 8 सुल्तानों का शासन देखा था। आमिर खुसरो Amir Khusro जैसा की हम जानते हैं की, आमिर खुसरो एक शायर थे वो एक ऐसे शायर थे जिन्होंने ने अपनी शायरी में हिंदी शब्दों का भरपूर प्रयोग किया हिंदी और फारसी शब्दों को मिलाकर जैसी वो शायरी किया करते आज भी उसकी मिठास वैसी की वैसी बानी हुई है, उन्हें ही खड़ी बोली की शुरुवात की वो अपनी पहेलियों और मुकरियों ले लिए काफी प्रसिद्ध थे। उन्होंने जितना कुछ लिखा है उसका हिसाब लगाना मुश्किल है उनके द्वारा उस ज़माने की बातों को आज इतिहास के रूप में जाना जाता है इसीलिए आमिर खुसरो को हिन्द का तोता भी कहा जाता है।

आमिर खुसरो की शुरुवाती ज़िन्दगी

1253 ईस्वी यानी 652 हिजरी में आज के उत्तरप्रदेश के एटा के एक कस्बे में आमिर खुसरो (अबुल हसन यमीनुद्दीन आमिर खुसरो) का जन्म हुआ था, इनके वालिद (पिता) एक तुर्क थे जिनका नाम सैफुद्दीन था। इनका खानदान चंगेज़ खान के आक्रमणों ज़ुल्मों से तंग आकर भारत आ गया था। आमिर खुसरो के पिता का साया बहुत दिनों तक उनके सर पर नहीं रह सका। वो जब महज़ 7 साल के थे उनके वालिद का इन्तेकाल (मृत्यु) हो गई, बहुत काम उम्र में उन्होंने शायरी करनी शुरू कर दी थी अपनी 20 साल की उम्र तक आते आते वो एक बड़े शायर बन गए, खुसरो की सारी ज़िन्दगी किसी न किसी बादशाह या सुलतान के साथ उनके दरबार में गुज़री जहाँ उनको गायक संगीतकार कवी शायर बुद्धिजीवी सैनिक हर किस्म के लोगों से मिलने और उनको समझने का मौका मिला। 

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भारतीय साहित्य और संगीत में योगदान

जैसा ही हमने ये जाना आमिर खुसरो ने अपनी ज़िन्दगी दरबार में ही गुज़ारी जहाँ उनको हर तरह के लोगों से मिलने का मौका मिला और सबका कुछ न कुछ उन्होंने सिख लिया, वो एक उम्दा शायर तो थे ही वो गाते भी बहुत अच्छा थे, उन्हें संगीत का गहरा ज्ञान था। उन्होंने भारतीय और ईरानी रागों को मिलाकर कई नए रागों की जन्म दिया जैसे ईमान, ज़िल्फ, साजगरी आदि उन्होंने गीत के जैसे अरबी और फ़ारसी शब्दों को मिलकर कई दोहे भी लिखे जो आज भी बहुत मशहूर हैं। कव्वाली और सितार भी इन्ही की देन है कई इतिहासकार मानते हैं की तबले का आविष्कार भी आमिर खुसरो ने ही किया था।

हज़रत निजामुद्दीन औलिया और आमिर खुसरो

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बचपन से ही खुसरो हज़रत निजामुद्दीन औलिया के मुरीद (शिष्य) थे, वो उनसे इस क़दर मुहोब्बत करते थे की, वो उनकी शान में ग़ज़लें गीत कव्वालियां लिखा और गया करते कई किस्से मशहूर हैं, दोनों के एक बार का किस्सा है की होली का दिन था तो खुसरो ने एक गीत लिखा हज़रत के लिए और अपनी माँ को सुनाया-

आज रंग है ऐ मां, रंग है री

मोरे ख्वाजा के घर के रंग है री

आज सजन मिलावरा मोरे आंगन में

आज रंग है ऐ मां, रंग है री

मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया

 

हज़रत निजामुद्दीन और उनकी जूतियों की कहानी

एक बार का क़िस्सा है की हज़रत निज़ामुद्दीन के पास के फ़क़ीर आया, कुछ दिन वो हज़रत के साथ रहा उसके बाद निज़ामुद्दीन साहब ने अपनी जूतियों की तरफ इशारा किया और उस फ़क़ीर से कहा की वो ले जाये उनकी जूतियां फ़क़ीर बड़ा खुश हुआ की, उसे महबूबे इलाही की जूतियां नसीब हुई।

वो ख़ुशी के मारे वहां से चला गया जब ये क़िस्सा हुआ तब खुसरो वहां मौजूद नहीं थे, वो कहीं गए हुए थे उनको रास्ते में वो फ़क़ीर मिला खुसरो ने अपने पीर की जूतियां पहचान लीं, उन्होंने उस फ़क़ीर से कहा की ये जूतियां उससे कैसे मिली उसने सारा क़िस्सा सुनाया।

खुसरो ने कहा की क्या वो ये जूतियां उन्हें बेचेगा उसने कहा हाँ तुरंत खुसरो ने वो जूतियां 500 रूपए देकर खरीद लीं और चल पड़े महबूबे इलाही की ओर।

जब वो उनके दरबार में पेश हुए उन्होंने उनकी जूतियां उनके पैरों में पहना दीं, हज़रत निज़ामुद्दीन ने पूछा ये कहाँ से मिलीं तुम्हे, उन्होंने सारा क़िस्सा सुनाया फिर उन्होंने खुसरो से पूछा की तुमने ये क्यों लीं, तब उन्होंने कहा की मैंने ये सोच की आप बिना जूतियों के कैसे रहेंगे तब उन्होंने कहा, खुसरो तुम्हे मेरी जूतियां सस्ती मिल गईं,

अलाउद्दीन खिलजी और आमिर खुसरो

वो दौर था की, हर कोई अपनी सत्ता चाहता था वैसे आज भी कुछ ख़ास बदला नहीं है। खैर अल्लाउदीन खिलजी ने एक राजनैतिक उठापटक के बाद 17 जुलाई 1296 के दिन खुद को हिन्दुस्तान का सुलतान घोषित कर दिया। इस दरम्यान खुसरो का बहुत बड़ा योगदान रहा था। खिलजी के दरबार में चूँकि वो होनहार और समझदार थे खिलजी अक्सर उनसे सलाह मश्वरा किया करता। खुसरो ने खिलजी को दुनिया का सुल्तान पृथ्वी पर मौजूद सभी सभी शासकों का सुल्तान योग का विजेता जनता का चरवाहा कहा था।

 कहा जाता है की, खुसरो ने खिलजी को रानी पद्मावती से दूर रहने की सलाह दी थी। उन्होंने खिलजी से कहा था की,औरत के दिल पर हुकूमत प्यार से किया जा सकता है, और उन्होंने कहा था की, रानी पद्मावती एक राजपूतानी है वो अपनी जान दे देगी मगर किसी कीमत पर वो खीलजी की नहीं हो सकती। 

गयासुद्दीन तुगलक और आमिर खुसरो

बात उस ज़माने की है जब खुसरो गयासुद्दीन तुगलक के दरबार में थे, खुसरो और निजामुद्दीन के क़िस्से जग ज़ाहिर थे गयासुद्दीन आमिर खुसरो जितना पसंद करता था उतना ही वो चिढ़ता था हज़रत निजामुद्दीन से।

एक बार गयासुद्दीन दिल्ली से कहीं बाहर गया हुआ था, उसके साथ आमिर खुसरो भी थे वो बोला दिल्ली लौटने की सोच रहे थे। गयासुद्दीन ने खुसरो से कहा की अपने पीर निज़ामुद्दीन से कह दो कि हमारे दिल्ली पहुंचने से पहले वो दिल्ली से बाहर चला जाये, ये बात सुनकर खुसरो को बहुत दुःख हुआ मगर वो कर भी क्या सकते थे।

खुसरो ने ये सन्देश निजामुद्दीन तक पहुँचाया और कहा की अब क्या होगा निजामुद्दीन ने कहा तुम फिक्र ना करो खुसरो हनुज दिल्ली दूरअस्त यानी अभी दिल्ली दूर है।

फिर गयासुद्दीन दिल्ली की तरफ निकल पड़ा मगर रास्ते में बहुत तेज़ आंधियां चलने लगीं, जिसकी वजह से उनको अपना सफर बीच में रोकना पड़ा। हवा इतनी तेज़ थी की, जिस तम्बू में गैसुद्दीन आराम कर रहा था वो उखड गया उसके निचे गयासुद्दीन दब गया और वहीँ उसकी मौत हो गई।

उसी वक़्त से ये कहावत कही जाती है की दिल्ली हनुज दूरअस्त यानी दिल्ली अभी दूर है।

 

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आमिर खुसरो की मृत्यु

निजामुद्दीन जब अपने हुजरे ( कुटिया ) के अंदर चले जाते आराम करने तब किसी को इजाज़त नहीं थी की वो अंदर जाये सिवाय आमिर खुसरो के वो इस क़दर पसंद थे अपने पीर को।

वो अक्सर कहा करते थे खुसरो को की तुम दुआ करो की मेरी उम्र लम्बी हो, क्योंकि मेरे बाद तुम ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रह सकोगे। हुआ भी ऐसा ही एक बार खुसरो किसी काम से दिल्ली के बहार गए थे की, हज़रत निजामुद्दीन की तबियत ख़राब हो गई और इस क़दर हुई की उन्होंने अपनी आँखें बंद कर ली।

जब ये खबर खुसरो तक पहुंची वो सब काम छोड़कर वापस दिल्ली आ गए, मगर उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी की वो अपने पीर को देख सकें। इस हालत में शाम ढलने को थी तब खुसरो ने अपने पीर का चेहरा देखा और वो जैसे बेहोश हो गए उस बेहोशी की हालत में उनके मुँह से निकला-

गोरी सोवे सेज पर मुख पर डाले केस

चल खुसरो घर आपने सांझ भई चहु देस 

अपने पीर की मज़ार पर जा बैठे खूसरो अपना सबकुछ गरीबों में दान कर के और वहीँ बैठे बैठे उन्होंने अपनी ज़िन्दगी तमाम कर ली ये वाक़्या है अक्टूबर 1325 का। आज जहाँ हज़रत निजामुद्दीन औलिया का मज़ार है दिल्ली में वहीँ करीब ही आमिर खुसरो का भी मज़ार है ये आज भी साथ है।

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